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Publishing Year : 2022

March To May
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निर्णय लेना महिला सशक्तिकरण का सूचक है, और महिला सशक्तिकरण किसी देश के सामाजिक-आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। महिला सशक्तिकरण को वैश्विक विकास का पावरहाउस माना जाता है। महिला सशक्तिकरण को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास के मुद्दों में इक्कीसवीं सदी के प्रमुख एजेंडे में से एक माना जाता है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है कार्य करने के लिए वैध शक्ति या अधिकार देना। यदि महिलाओं को सशक्त बनाया जाए तो वे योजना और निर्णय लेने के कार्य में भाग ले सकेंगी और व्यक्तिगत रूप से विकास कार्यक्रमों और गतिविधियों में योगदान दे सकेंगी। यह अध्ययन घरेलू स्तर पर निर्णय लेने के अधिकार के माध्यम से महिला सशक्तिकरण पर केंद्रित है। भारत में पुरुष प्रधान परिवार आदर्श है, और सांस्कृतिक रूप से महिला प्रधान परिवार को स्वीकार नहीं किया जाता है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य घरेलू स्तर पर निर्णय लेने की शक्ति के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की जांच करना है। यह माना गया है कि महिला सशक्तिकरण और घरेलू स्तर पर निर्णय लेने के बीच सकारात्मक संबंध है। विश्वसनीय डेटा प्राप्त करने के लिए मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों डेटा का उपयोग किया गया है। बस्तर संभाग में 342 नमूना महिलाओं के प्रश्नावली सर्वेक्षण से डेटा प्राप्त किया गया था। आय, बचत, व्यय और बच्चों की शिक्षा और विवाह आदि के निर्णयों पर निर्णय लेने की शक्ति के संबंध में डेटा एकत्र किए गए हैं। अध्ययन यह मानता है कि निर्णय लेने के अधिकार और महिला सशक्तिकरण के बीच एक मजबूत  संबंध है। हालाँकि सांस्कृतिक मानदंडों और अन्य व्यक्तिगत मुद्दों के कारण महिलाओं को घरेलू स्तर पर निर्णय लेने की अनुमति नहीं है। दुनिया के समग्र विकास के लिए महिला सशक्तिकरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बदलने का समय आ गया है।

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सशक्तिकरण, पावरहाउस, जनसांख्यिकीय, वैध शक्ति, मात्रात्मक और गुणात्मक।

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  1. लेविस, ऑस्कर (19958) गु्रप डायनामिक्स इन नार्थ इंडिया विलेजेसः ए स्टडी ऑफ फक्शन्सय प्रोग्राम इवेल्युएशन आर्गेनाइजेशन प्लानिंग कमीशन, नई दिल्ली। 

2. सिंह, बैजनाथ (1959) द इम्पेक्ट ऑफ द कम्यूनिटी डेव्हलपमेंट प्रोग्राम ऑन रूरल लीडरशिपः पार्क एण्ड टिंकर (सं.) लीडरशिप एण्ड पॉलिटिकल इन्स्टीट्यूशन्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मद्रास।
3. सिंह, अवतार (1963) लीडरशिप पैटर्न एण्ड विलेज स्ट्रक्चर, स्टर्लिंग, नई दिल्ली।
4. वैकटरंगैय्या, एम. एवं रामरेड्डी, जी. (1967) पंचायत राज इन आंध्रप्रदेश, स्टेट चौम्बर ऑफ पंचायत राज, हैदराबाद।
5. शाह, जी. (1975) पोलिटिक्स ऑफ शिड्यूल्ड कास्ट एण्ड ट्राइब्स वोरा एण्ड कं., बम्बई। 
6. मुखर्जी, आर.एन. (1975) भारतीय सामाजिक संस्थायें, सरस्वती सदन दिल्ली।
7. भार्गव, बी.एस. (1979) पंचायत राज सिस्टम एण्ड पॉलिटिकल पार्टीज, आशीष पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली। 
8. दरसानकर, ए.आर. (1979) लीडरशिप इन पंचायत राज, पंचशील प्रकाशन, रायपुर।
9. समाजशास्त्र परिभाषा कोश, मानव संसाधान विकास मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली 1987 
10. चक्रवर्ती, के. एवं भट्टाचार्य. एस.के. (1993) लीडरशिप फैक्शंस एण्ड पंचायतराज, रावत पब्लिकेशन, जयपुर।
11. कौशिक, सुशीला (1993) वुमन्स पार्टिसिपेशन इन पॉलिटिक्स, विकास पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली।
12. खत्रा, बी.एस. (1994) पंचायत राज इन इंडिया रूरल लोकल सेल्फ गवर्नमेंट, दीप एण्ड दीप पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली।

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 Social control of female under patriarchy has been effectively presented by Jhumpa Lahiri in her novel The Namesake. How women acclimatise themselves as willing partners ready to sacrifice their career and personal choices and accept subordination has been projected through the character of Ashima. Female identity is pushed under carpet and their preferences are skipped with an obvious purpose to preserve the stereotypical structure of society which is considered to be crucial. Jhumpa Lahiri shows how projection of a woman in an idealistic frame, who is an image of self-sacrifice and is capable of multi-tasking, robs her of individuality and selfhood. This paper analyses how politics of power channelises the institution of patriarchy in the household of Ashima and her husband and confirms male dominance. The hierarchy is not only in the larger structure of society but in the family unit itself. The author presents the way in which Ashima Ganguli emerges strong and dignified amidst all the exploitation and marginalisation and chooses to leave behind the iniquitous system of institutionalised oppression and move forward towards a desirable state of self-existence.

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 Stereotypical, Institutionalised Oppression, Marginalisation.

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  1. Lahiri, Jhumpa. The Namesake. Houghton Miffin, 2003.

2. Kapur, Manju. A Married Woman. Paperback, 2002.
3. Nityanandam, Indira. Jhumpa Lahiri: The Tale of Diaspora. Creative Books, 2005.
4. Srivastava, Sharad. The New Woman in Indian English Fiction. New Delhi, 2001.

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 Internet was made as a global network primarily to fulfill military purposes. Thus, it is obvious that the need for protection of data or information existed since the time internet is in use. Now, when it is accessible to almost everyone, criminals have started to use it for their personal goals. Cyber-security is the practice of protecting internet-connected systems including hardware, software and data, networks, and programs from digital attacks.

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Cyber Security, Cyber Privacy, Internet, Network.

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1. Childs J. Rives, General Solution of the ADFGVX Cipher System, Aegean Park Press, Laguna Hills, California, 2001

2. The Wikipedia has many informative articles on Cryptology.

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स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान पुर्नजागरण काल में दलितोत्थान के नये युग का आगमन हुआ। इस काल में समाज सुधार आन्दोलन विवेक और तर्क पर आधारित था, जबकि भक्ति आन्दोलन भक्ति में निहित था। इसी भक्ति में निहित व्यक्ति की समानता की जो पृष्ठभूमि निर्मित हुई। वास्तव में समाज सुधारकों का उद्देश्य दलितांे का उत्थान करना था जिसमें महत्वपूर्ण समस्या अस्पृश्यता अर्थात् अछूतोंद्धार था। इस दिशा में ईसाई मिशनरियों ने सहज और सरल तरीका धर्म परिवर्तन का अपनाया। वहीं हिन्दू धर्मावलम्बियों ने दलित उत्थान के लिये संस्थाओं को माध्यम बनाया। इसमें राजाराममोहन राय का ब्रहम समाज, स्वामी विवेकानन्द का रामकृष्ण मिशन, स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज, महादेव गोविन्द रानाडे का प्रार्थना समाज, ज्योतिबाफुले का सत्यशोधक समाज आदि संस्थाओं का निर्माण प्रमुख है। दलित उन्नयन की कड़ी में महार दलित जाति में बी. आर. अम्बेडकर का नाम उल्लेखनीय है।

 

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 जाति प्रथा, समाज सुधार, दलित चेतना, अंधविश्वास।

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  1. राजवीर सिंह, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, हिन्द पुस्तक भवन, दिल्ली, 2017

2. नरेन्द्र सिंह, दलितों के मसीहा, चेतना प्रकाशन, दिल्ली, 2005
3. आशा रावत, संविधान निर्माता, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, सुरूचि प्रकाशन, दिल्ली, 2003
4. रजनी द्विवेदी, भारत का संविधान, ज्ञान पब्लिशर्स, मेरठ, 1989
5. आउटलुक पत्रिका, 1990
6. ज्ञानदायिनी समाज विज्ञान, शोध पत्रिका पांचवा संस्करण, 2016
    
 

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 भारत के महानगर और शहर भले ही दुनिया के साथ कदम मिला रहे हों, मगर देश के कई हिस्सों में अभी भी अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी और आपदाओं से त्रस्त एक बड़ा तबका बिखरा हुआ है, जो आज भी उसी स्थिति में है जैसा स्वतंत्रता से पहले था। हमारे देश की अधिकांश आबादी को भोजन, आवास, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकतायें भी प्राप्त नही है, जो कि एक गरिमामय जीवन जीने के लिए अति आवश्यक है। वर्तमान में समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता बढ़ रही है और सरकार विकास का नारा देकर अनेक नीतियॉं बना रही है ताकि वर्षाे से दबी महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके, लेकिन क्या वास्तव में इन्हें इनके अधिकार प्रदान किये जाते है? महिला श्रमिकों के वेतन, स्वास्थ्य तथा सुरक्षा संबंधी कानूनों की पर्याप्तता के बावजूद भी इनका शोषण हो रहा है क्यो? यह विचारणीय है। महिला श्रम से तात्पर्य ‘‘आर्थिक उद्देश्यों या लाभों के लिये महिला द्वारा किये गये शारीरिक या मानसिक श्रम से है।’’ विचारकों के बीच यह विवाद रहा है कि शारीरिक और मानसिक श्रम की दृष्टि से पुरुष और नारी के बीच भिन्नताएं है या नही? सामान्यतः महिला श्रमिकों को पुरुषों की अपेक्षा कम मजदूरी दी जाती रही है तथा वर्तमान में भी इस स्थिति पर कानूनन प्रतिबंध होने के बावजूद भी अप्रत्यक्ष रूप से अब भी जारी है।

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 श्रमिक, शारीरिक-मानसिक श्रम, वेतन/मजदूरी, गरिमामय जीवन।

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  1. Deshmukh D.J., The Metalliferous Mines Regulation 1961, 1998, Central Techno Publication, Nagpur (M.H.)

2. Dubey R.N., The Equal Remuneration Act. 1976, India Publishing Company
3. Dubey R.N., The Meternity Benefit Act. 1961 & M.P./ C.G. Rule 1965, India Publishing Company. 
4. सेनगुप्ता, वृन्दा ‘‘कामकाजी महिलाओं के विरूद्ध अपराध और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न‘‘ मध्यप्रदेश सामाजिक शोध समग्र, सितम्बर 2014. 
5. यादव, अतुल और यादव, संगीता ‘‘महिलाओं के प्रति सामाजिक न्याय तथा मानवाधिकार‘‘ सामाजिक सहयोग, राष्ट्रीय त्रैमासिक शोध पत्रिका, अंक 74-75, सितम्बर 2010 
6. Bhatt S.C., The District Gazetter of Chhattisgarh, 2001,
7. Kumar  Anuradha , Human Right- Global Perspectives, 2002, Sarup & Sons, New Delhi
8. Desta  Sunil, Fundamental Right - The Right To Life & Personal Liberty, Deep &  Deep Publication, New Delhi
9. देशपाण्डे, श्रीहरि सुलोचना ‘‘भारतीय समाज में कार्यशील महिलाए‘‘ श्रुति पब्लिकेशन, ज्योति नगर, जयपूर 2006.
10. नामदेव, प्रीति ‘‘विभिन्न व्यवसायिक समूहो में कार्यरत महिलाओं में तनाव संबंधि विश्लेश्ण‘‘ सामाजिक सहयोग पत्रिका, अंक 7, वर्ष 2016.

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पर्यावरण हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। पर्यावरण की रक्षा करने में लापरवाही बरतने का अर्थ अपना विनाश करना है। हम अपने दैनिक जीवन में पर्यावरणीय संसाधनों का प्रयोग करते है। मानव की सभी क्रियाओं का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। विगत दो सदियों से जनसंख्या में हुई वृद्धि तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए तीव्र विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव कई गुना बढ गया है। यदि पर्यावरणीय समस्याओं को हल नहीं किया गया तो यह पृथ्वी भावी पीढ़ी के रहने योग्य नहीं रहेगी। इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भविष्य को संभव बनाने के लिए पर्यावरण की रक्षा एवं बचाव अनिवार्य है। यद्यपि प्रकृति में सहन करने की अपार क्षमता है और यह स्वयं को पुनर्जीवित कर लेती है। परंतु फिर भी इसकी एक सीमा है विशेष रूप से जब बढ़ती जनसंख्या और प्रौद्योगिकी का दबाव निरंतर बढ़ रहा है। आज अक्षय विकास तथा परिवर्तनशील पर्यावरण के सुधार एवं संरक्षण की आवश्यकता है।

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 पर्यावरण जागरूकता, जनसाँख्यिकीय क्षेत्र, बी.एड. प्रशिक्षणार्र्थी, आदिवासी बहुल।

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  1. कपिल एच.के. ’’अनुसंधान विधियां’’ एच.पी.भार्गव बुक हाउस भवन, कचहरी घाट, आगरा। 

2. भार्गव, एम. ‘‘आधुनिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण और मापन (हिंदी)‘‘ एच.पी. भार्गव बुक हाउस आगरा, 2006।
3. गुप्ता आर.डी, सिंह के.वी. ’’पर्यावरणीय अध्ययन’’ वितरक आर.लाल बुक डिपो, मेरठ। 
4. गोयल, एम.के. ‘‘पर्यावरण शिक्षा’’ विनोद पुस्तक मंदिर आगरा, 2005। 
5. उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों एवं छात्राओं की पर्यावरण के प्रति जागरूकता एवं अभिवृत्ति का अध्ययन, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च -ग्रंथालयः खंड 3, अंक-7ः सितंबर, 2015। 
6. उच्चतर माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों में पर्यावरणीय जागरूकता- एक अध्ययन, अनुसंधान की समीक्षा, खंड -4, अंक-7, अप्रैल-2015।
Websites
1. www.google.com
2. www.wikipedia.org
 

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 सौन्दर्य बोध का सम्बन्ध हृदय से है और हृदय शरीर में स्थित है। शरीर जिस भूमि-विशेष से सम्बन्धित होता है, उसी के अनुसार हृदय को रस-ग्रहण की आदत पड़ जाती है। जैसे- जापान देश का करूणाजनक संगीत अफ्रीका देश के व्यक्ति को हास्यरस का आनन्द प्रदान करेगा अथवा अफ्रीका देश के करूण-प्रधान संगीत से जापान देश के व्यक्ति के मन में रौद्र रस का संचार होगा, परन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं कि रस की मूलभूत सृष्टि में कोई अन्तर है। 

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 संगीत, सौन्दर्य, रस, गायन।

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  1. ‘‘वसंत’’ प्रभुलाल गर्ग, संगीत विशारद- पृष्ठ सं॰- 33

2. श्रीवास्तव, प्रो॰ हरिश्चन्द्र, संगीत निबन्ध- पृष्ठ सं॰- 88
3. महाजन, डॉ॰ अनुपम, भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं सौन्दर्यशास्त्र, हरियाणा साहित्य अकादमी, चन्डीगढ़, 1993 ई॰     
4. श्रीवास्तव, प्रो॰ हरिश्चन्द्र, संगीत निबन्ध- पृष्ठ सं॰- 84

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 प्रस्तुत लघु शोध बाल श्रमिक विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्या के अध्ययन एक सर्वेक्षण प्रकार का शोध है। दुर्ग जिले के भिलाई शहर के बाल श्रमिक विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्याओं का सर्वेक्षणात्मक अध्ययन किया गया। प्रस्तुत शोध का उद्देश्य बाल श्रमिक विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन करना है। प्रस्तुत शोध कार्य में दुर्ग जिले के भिलाई क्षेत्र के बाल श्रमिक विद्यालयों को लिया गया। प्रश्नावली के आधार पर बाल श्रमिक विद्यार्थियों का चयन किया गया, जिसमें कुल 80 विद्यार्थी हैं। प्रस्तुत अध्ययन में बाल श्रमिक विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्या मापन हेतु स्वनिर्मित उपकरण शैक्षिक समस्या परीक्षण (2012) का उपयोग किया गया जिसका चयन उद्देश्य पूर्ण न्यादर्श विधि से किया गया। अध्ययन का परिणाम यह दर्शातें हैं कि बाल श्रमिक विद्यार्थियों में शैक्षिक समस्या पाया गया। 

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 बाल श्रमिक, विद्यार्थी।

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  1. अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (1992), विश्व श्रम प्रतिवेदन दिवस।

2. बादीवाला मितेरूा (1998), भारत में बाल श्रमिक कारण, सरकारी नीति और शिक्षा की भूमिका।
3. भारतीय आधुनिक शिक्षा (1999), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र।
4. देशपाण्डे आर.वाय. (1996), भारत में बाल श्रमिक (कानूनी प्रावधान)।
5. देवी आर. (1985), प्रिवलेंस ऑफ चाइल्ड लेबर इन इंडिया, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई।
6. ह्रमाडे राघवेन्द्र (2014), बाल श्रमिक विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्या का अध्ययन।
7. कपिल एच.के. (2006), विश्व विधियॉं (व्यवहारपरक विज्ञानों में), कचहरी घाट, आगरा।
8. मिश्रा उर्मिला (1992), बाल श्रमिकों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं, भिलाई क्षेत्र के संदर्भ में।
9. मुरलीधरन आर. (1976), बाल श्रमिकों की अनिवार्य शिक्षा, समाज कल्याण।
10. पाठक पी.डी. (2007-2008), शिक्षा मनोविज्ञान, अग्रवाल पब्लिकेशन, आगरा।
11. रूहेला सत्यपाल (1989), भारतीय शिक्षा का समाजशास्त्र, राजस्थान ग्रंथ अकादमी, जयपुर।
12. सरीन एण्ड सरीन (2005), शैक्षिक अनुसंधान विधियाँ, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा।
 

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 हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी पात्रों को आरंभिक उपन्यासों में स्थान नहीं मिला है। आदिवासी विषयक उपन्यासों में ही प्रमुखता आदिवासी पात्रों को स्थान मिला। गैर-आदिवासी उपन्यासकार तथा आदिवासी उपन्यासकारों का आदिवासी समाज को देखने तथा समझने का नजरिया अलग-अलग है जिससे उपन्यास में कई तरह के पात्रों का अवतरण होता है। आदिवासी विषयक उपन्यासों के लेखन में सुविधा के लिए उपन्यासकारों को तीन श्रेणी में बांटा जा सकता है जिससे आदिवासी पात्रों के अध्ययन में सहायता मिलती है साथ ही पात्रों के विकास का भी पता चलता है। कई पात्रों में उपन्यासकार के विचारधारा का प्रभाव अधिक देखने को मिलता। कुछ में उपन्यासकार का आदिवासी के प्रति पूर्वाग्रह का असर दिखता है साथ ही कुछ उपन्यासों में आदिवासी पात्र मुखर रूप से सामने आए हैं उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास देखने को मिलता है। 

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 आदिवासी, उपन्यास, पात्र, आदिवासी समाज, लेखकीय विचारधारा।

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  1. मीणा गंगासहाय, आदिवासी और हिन्दी उपन्यास, अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष,  अनन्नय प्रकाशन प्रथम संस्करण 2016, पुनमुर्द्रण-2018, पृ॰-125 (समकालीन जनमत, आदिवासी मिथ और यथार्थ, सितंबर 2003, अंक 2-3 संपादकीय पृ॰-5)।

2. विश्वकर्मा विनोद, हिन्दी उपन्यास और आदिवासी चिन्तन संघर्ष, सपने और चुनौतियों एवं 21 वीं सदी, सं॰, अनंग प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2015, पृष्ठ सं0-89।
3. मीणा गंगासहाय, आदिवासी और हिन्दी उपन्यास अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष, अनन्नय प्रकाशन प्रथम संस्करण 2016, पृ॰सं॰-125।
4. रेणु फणीश्वरनाथ, ‘‘मैला‘‘ अंाचल, राजकमल प्रकाशन, दूसरी आवृत्ति 2009, पृ॰सं॰ -189।
5. प्रेमचन्द, गोदान, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 1997 पृष्ठ सं॰ 71।
6. मीणा गंगासहाय, आदिवासी और हिन्दी उपन्यास अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष, अनन्य प्रकाशन दिल्ली प्रथम संस्करण 2016, पुनर्मुद्रण-2018, पृष्ठ सं॰ 126।
7. झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, वीर भारत तलवार, भारतीय ज्ञानपीठ, दूसरा संस्करण-2012, पृष्ठ सं॰-428।
8. मीणा गंगासहाय, आदिवासी और हिन्दी उपन्यास अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष, अन्नय प्रकाशन दिल्ली प्रथम संस्करण 2016, पुनर्मुद्रण 2018, पृष्ठ संख्या-126।
9. दूबे संजीव, पांव तले की, वाग्देवी प्रकाशन, प्रथम पॉकेट बुक संस्करण 2005 ई पुनमुर्द्रण संस्करण 2009,2013,2016 ई॰, पृष्ठ सं॰ 14।
10. एक्का डॉ॰ फा॰ पीटर पौल, मौन घाटी, एस जे सत्य भारती प्रकाशन, पृ॰-50।
11. वही, पृ॰-81।
12. सं॰-गुप्ता रमणिका, आदिवासी अस्मिता की पड़ताल करते साक्षात्कार, स्वराज प्रकाशन पृष्ठ सं॰ 65।
 

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  मेघदूत महाकवि कालिदास की अत्यंत लोकप्रिय रचना है जिसमें प्रकृति का सौंदर्यपूर्ण वर्णन बड़े ही सजीव रूप में किया गया है। प्रकृति मानव की सदैव सहचरिणी रही है एवं चाहे वह सुखी हो या दुखी सभी अवसरों पर प्रकृति मनुष्य के साथ साये की भांति उपस्थित रही है। मेघदूत में विरही यक्ष एवम यक्षिणी के मन की करुण गाथा वर्णित है। विरही यक्ष आषाढ़ मास में जब रामगिरी पर्वत पर प्रकृति के अद्भुत एवं सौंदर्य से परिपूर्ण रूप (मेघ) को देखता है तो वह अपनी प्रियतमा से मिलने हेतु व्याकुल हो उठता है। ऐसे में काले मेघ को दूत बनाकर हिमालय की गोद में बसी अलकापुरी में रह रही यक्ष-पत्नी वियोगिनी यक्षिणी के पास अपने मन के भाव को संदेश रूप में भेजता है। विद्वानों के अनुसार यह संपूर्ण खंडकाव्य ही  सजीव चित्रपट है जिसे समय-समय पर चित्रकारों ने अपने अपने अनुसार रूप देने की कोशिश की है। इस कड़ी में राजस्थानी शैली के कुशल चित्रकार श्री कन्हैया लाल वर्मा ने मेघदूत से अत्यंत प्रभावित होकर लगभग 3 दर्जन चित्रों की रचना की जो अत्यंत सुंदर व सारगर्भित हैं। उन्हीं में से कुछ चित्रों के निर्माण की प्रक्रिया एवं उनकी विशेषता का सचित्र उल्लेख शोध में किया गया है।

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आषाढ़, चित्ताकर्षक, लालित्यपूर्ण, अक्षतफल, हृदयस्पर्शी, कल्पना।

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  1. ऋषि उमाशंकर शर्मा, संस्कृत साहित्य का इतिहास, चौखंबा भारती अकादमी वाराणसी 1960।

2. द्विवेदी कपिल देव, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, रामनारायणलाल विजय कुमार, इलाहाबाद, 2016।
3. शास्त्री गौरीनाथ, लौकिक संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, चौखंभा विद्याभवन, वाराणसी, 2013।
4. उपाध्याय बलदेव, संस्कृत वांग्मय का वृहद इतिहास, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, 1999।
5. जैन राकेश कुमार, संस्कृत साहित्य का इतिहास, रचना प्रकाशन, जयपुर, 2019।
6. त्रिपाठी रमाशंकर, संस्कृत साहित्य का प्रमाणिक इतिहास, चौखंभा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी 2017।
7. https://en.m.wikipedia.org
8. https://hi.m.wikipedia.org
9. https://navankura.wordpress.com
10. https://www.britannica.com
11. https://www.exoticindiaart.com
12. https://chaukhamba.co.in
 

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 “छोड़ो मुझे जाने दो,

मेरी भी जिन्दगी है, मुझे जीने दो
क्या, गुनाह किया था मैने जन्म लेकें?
क्यूँ ये दुनिया बेटी के नाम से चिढ़ती है?
क्यूँ ये दुनिया बहु को जलाती है?
क्युँ ये दुनिया मुझे नोच के खाती है?
तेरे आँचल में मुझे समा ले माँ
मुझे भी खुलकर जीने का हक दिला दे माँ।“
एक महिला अपने जीवन में हर रूप से रूबरू होती है, लेकिन हर एक रूप में उसे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इन मुश्किलों को समझने और उनका सामना करने के लिए महिला शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन यह शिक्षा की सीढ़ी चढ़ना, उनके लिए इतना आसान नहीं होता, उन्हें कई तरह के अत्याचार और घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। इस लेख के माध्यम से लेखिका इस बात पर चर्चा करना चाहती हैं, कि कैसे महिलाओं को अपनी शिक्षा पूरी करने में विभिन्न कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है और महिलाओं की शिक्षा पर दो बड़ी समस्या “महिला उत्पीड़न और घरेलू हिंसा“ का क्या प्रभाव पड़ता है। यहाँ लेखिका ने कुछ ऐसे कदमों के बारें में भी चर्चा की है कि कैसे महिलाएँ अपने जीवन के बारे में जागरूक हो सकती है।
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 महिला उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, महिला शिक्षा।

Read Reference

1. Crime in India. New Delhi: National Crime Records Bureau; 2011 Retrieved from: http://ncrb.nic.in/.

2. Koenig, M. A., Ahmed, S., Hossain, M. B & Mozumder, A. B. M. K. A. (2003). Women’s Status and Domestic Violence in Rural Bangladesh: Individual- and Community-Level Effects. Demography, 40 (2), 269-288. Retrieved from http://www.jstor.org/stable/10.2307/3180801

3. Nahar Paprun, Reeuwisk Van Reisr (2013) Contextualizing Sexual Harassment of Adolescent women In Bangladesh, Report Health Matters, Vol. 21 Issues 41, pp. 73-86.

4. Naved, R. T., and Persson, L. A. (2005). Factors associated with spousal physical violence against women in Bangladesh. Studies in Family Planning, 36(4), 289-300.

5. Pasko Lisa (2010) Damaged Daughter: The History of Women Sexuality and the Juvenile Justice System- 100 J. CRIM, L. & Criminology 1099.

6. UNICEF (1999). A study by Domestic Violence Research Centre, Japan Violence against Women,” WHO, FRH/WHD/97.8, “Women in Transition,” Regional Monitoring Report,

7. World Health Organization. (2005). WHO Multi-country Study on Women’s Health and Domestic Violence against Women. Retrieved from http://www.who.int/gender/violence/who_multicountry_study/summary_report/summary_report_English2. pdf

8. Https://www.drishtiias.com


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 संघ एक प्रकार की सरकार है, जिसमें सर्वाेत्तम सत्ता अथवा राजनैतिक शक्ति का वितरण केन्द्रीय और स्थानीय सरकारों में इस प्रकार होता है, जिसमें कि प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में कार्य करने के लिए स्वतंत्र है।

 

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 संघ, राजनैतिक, शक्ति।

Read Reference

  1. डक मारिस, “पब्लिक एक्पेंडिचर रिलेटिव फाइनेंस एण्ड रिसोर्सेस अलेक्शन” (पब्लिक फाइनेंस, पी0एच0 4532 पेज नं0-1, 1985)

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7. हरिभूमि।

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 बौद्धिक अक्षमता एक ऐसी स्थिति है जो विभिन्न ज्ञात और अज्ञात कारणों से मस्तिष्कीय कोशिका के क्षतिग्रस्त होने के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है। आज कल के परिवेश में बालिकाओं के साथ कई प्रकार के शोषण किये जा रहे हैं,। बालिकाओं की सुरक्षा की तैयारी न तो घर वाले अच्छी तरह से कर पा रहे है, न ही समाज उनकी देख-रेख करने में सहायक है। बौद्धिक दिव्यांगता से ग्रसित बालिकायें दोहरे रूप से कठिनाई में होती है। पहले तो वे बौद्विक रूप से कमजोर है और दूसरी ओर अपनी सुरक्षा भी नही कर पाती। उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके परिवार वालो की होती है। इस संबंध में माताओं का फर्ज होता है कि वे जागरूक होकर सुरक्षा प्रदान कर मदद पहुँचाने के लिए तैयार व तत्पर रहती है। इसके लिए माताओं को यौन शोषण की जानकारी देना व इससे बचाव के तरीकों की सम्पूर्ण जानकारियाँ अति आवश्यक हैं। मातायें एक प्रेरणात्मक व प्रशिक्षक माध्यम बनकर बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं को यौन शोषण के बचाव के बारे में जानकारियॉ देते हुए सुरक्षित जीवन जीने की कला सिखाती हैं इसलिए माताओं को गंभीर समस्या से जागरूक होना अति आवश्यक है। अल्प एवं अति अल्प बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं में यौन  शोषण से सुरक्षा के प्रति माताओं की जागरूकता में सार्थक अन्तर नही पाया जायेगा की परिकल्पना की गई है। प्रस्तुत शोध अल्प में बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं के 50 माताओं एवं अति अल्प बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं के 50 माताओं से स्वयं निर्मित प्रश्नावली द्वारा आंकडों का संकलन किया गया। अल्प एवं अति अल्प बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं में यौन शोषण से सुरक्षा के प्रति माताओं के जागरूकता में सार्थक अंतर के लिए टी मूल्य 13.08 प्राप्त हुआ जो स्वतंत्रता की अंश 0.98 के लिए 0.05 स्तर पर हैं। यह निष्कर्ष निकलता है कि अल्प एवं अति अल्प बौद्धिक दिव्यांगता बालिकाओं में यौन शोषण से सुरक्षा के प्रति माताओं के जागरूकता में सार्थक अंतर पाया गया है।

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 मानसिक मंदता, यौन शोषण, माताएं, सुरक्षा, जागरूकता।

Read Reference

  1. जोसेफ आर. ए. (2003), पुर्नवास के आयाम, समाकलन पब्लिशर्स, विकलांग समाकलन संस्थान, करौंदी, बी. एच. यू. , वाराणसी, उत्तर प्रदेश।

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 आज सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक स्तर में परिवर्तन से एक ओर जहाँ व्यक्तिवादी मूल्यों को बढ़ावा मिला वही दूसरी ओर समानता, लोकतंत्र व लौकिकवाद तथा वैज्ञानिकता से संबंधित मूल्यों को भी बढ़ावा मिला। कानून के समक्ष समानता का सामाजिक मूल्य वैश्वीकरण की ही देन है। शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार सबको है, धर्म के आधार पर या जाति के नाम पर छुआछूत अनूचित है। स्त्रियों को पुरूषों के बराबर हक प्राप्त है। भारतीय समाज अथवा सभ्यता का इतिहास काफी प्राचीन है। समय-समय पर भारतीय समाज में अनेक उतार- चढ़ाव आये, लेकिन फिर भी इसका मौलिक स्वरूप सदा जीवित रहा।

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 बौद्धिक स्तर, व्यक्तिवादी मूल्य, लौकिकवाद, छुआछूत।

Read Reference

 1. पाण्डेय तेजस्कर, पाण्डेय ओजस्कर, समाजकार्य, भारत बुक सेन्टर लखनऊ पृ. - 1180.

2. मदन जी.आर., परिवर्तन एवं विकास का समाजशास्त्र, विवेक प्रकाशन  पृ. - 05, 333, 2011.
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 Cryptocurrency is digital currency which is a distributed ledger based on blockchain technology of a decentralized network of computers. Cryptocurrencies are not issued by a central authority, which in principle gives them immunity from Government interference or corruption or manipulation. It is the decentralized structure that allows it to remain outside the control of Governments and central authorities. It is cheap and fast money transfer system. Cryptocurrency is a digital payment system that does not rely on banks to set up transactions. When transferring crypto currency funds, transactions are recorded in a public ledger. Cryptocurrency is stored in a digital wallet. Bitcoin was the first cryptocurrency in 2009.The most risky crypto currency for investment may continue to be bullish, although most countries will keep it away from Government recognition, but the investment in it can increase continuously because 99% of the world’s people investing in the stock market are still are far from it. The use of cryptocurrencies and blockchain technology in the transactions of bonds, stocks and other financial assets is very less in the financial context but it is expected to be used more in the future. At present, where the whole world is emphasizing on using paperless and plastic money, the same question also comes whether it will be safe to do financial transactions in the digital world, will it be reliable, will it also be transparent.

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 Cryptocurrency, Virtual Currency, Decentralized Payment Network, Detrended Cross-Correlation.

Read Reference

 1. Babaioff M. et al. (2011): On Bitcoin and red balloons.

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 भारत की प्राचीन धरती पर छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक सम्पदा से संपन्न कबीरधाम जिले के मैकाल पर्वत श्रेणी पर निवास करने वाले बैगा जनजाति है। यह जनजाति मुख्यतः कबीरधाम जिले के बोडला पंडारिया व भोरमदेव के आसपास क्षेत्र के गांव में पाए जाते हैं। प्रस्तुत शोध अध्ययन छत्तीसगढ़ के पिछड़ी बैगा जनजाति के जीवन स्तर सामाजिक व आर्थिक अध्ययन पर आधारित हैं। यह अध्ययन कबीरधाम जिले के मैकल पर्वत श्रेणी पर स्थित विभिन्न ग्रामों का अध्ययन है। अध्ययन में 250 बैगा परिवारों के सामाजिक व आर्थिक क्रियाकलापो व समस्याओं की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। अध्ययन में तथ्यों का संकलन हेतु साक्षात्कार अनुसूची उपकरण का प्रयोग किया गया है। 

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 बैगा जनजाति, सामाजिक, आर्थिक।

Read Reference

 1. पटेल, जी. पी. (1991), ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक समस्या एवं समाधान (मध्यप्रदेश के संदर्भ में) बुलेटिन ऑफ द ट्राईबल रिसर्च एंड डेवलपमेंट भोपाल, वॉल्यूम -19 नंबर ,1.2 पृष्ठ से 20 -27

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 मानव जीवन में फैशन एक एैसा बदलाव है जो हमेशा हमें एक नएपन का एहसास दिलाता रहता है। यह हर दौर में अपने साथ एक समय का चलन लेकर चलता रहता है जिसे फैशन कहते हैं। जैसा कि फैशन मानव द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुएँ पात्र, वस्त्र एवं आभूषण आदि के आकार तथा लोक दृश्यकला, साज-सज्जा में भी परिलक्षित दृश्य फैशन होता है। कपड़े, घर स्टाइल, मेकअप आदि यह सब पुराने नहीं होते बल्कि समय के बदलाव के साथ-साथ इसमें भी कुछ अब नए लोक दृश्यकला के प्रयोगो का निर्माण किये जाते रहते हैं।

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 दृश्यकला, लोककला, फैशन के क्षेत्र, ‘अभिकल्पना‘ (डिजाइन), रचनात्मक, कलात्मक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक।

Read Reference

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6. उपाध्याय, कृष्ण देव, इलाहाबाद- 1970, लोक साहित्य की भूमिका, पृष्ठ संख्या 100-101।