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Publishing Year : 2022

June To August
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 छत्तीसगढ़ के 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य करके अपना जीविकोपार्जन करते है। वर्तमान सरकार द्वारा जो विकास योजना लाया गया है। जैसेः (नरवा-नाला) गाँव का पानी जो कि बह जाता है जिसे छोटा बाँध बनाकर एकत्रित करगें तो इससे भूमिगत जल स्त्रोत बढ़ेगा, गाँव के लोगो को जरूरत पढ़ने पर उसका उपयोग किया जा सकता है। (गरवा-पशुधन) जिसमें मनुष्यो के जीवनयापन की उपयोगिता समाहित है। खेत जुताई से लेकर मनुष्यो के भोजन तक पुरी हो जाती है। (घुरवा- कचरा इकट्ठा करने की जगह) खेती के बचा कचरे, घर के कचरे, जिसमें जैविक खाद बनाने की पक्रिया होती है। (बाड़ी- खेती) आज के आधुनिक युग में रसायनिक क्रियाओ का अत्याधिक उपयोग हो रहा है, जिससे पर्यावरण के प्रदुषण के कारण मानव के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव हो रहा है, जिसमे बाडी मे, सिंचाई, पशुधन का जैविक खाद की उपयोगिता के आधार पर यह योजनाएँ  आने वाले भविष्य के लिए लाभदायक है।

 

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 नरवा, गरवा, घुरवा बाड़ी, सामाजिक आर्थिक विश्लेषण.

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  1. सेंसेस ऑफ इण्डिया 2001 म. प्र. सीरिज। पेपर -प्रथम, खण्ड- एक।

2. आक्सफोर्ड स्कुल एटलस 1986 चतुर्थ संस्करण पृष्ठ 9।
3. जाल सांख्यिकी पुस्तिका 2000 जाल सांख्यिकी कार्यालय, रायपुर।
4. गलेहियर ऑफ इंडिया म. प्र. जिला रायपुर 1978 पेज 3
5. डायरेक्ट्रीट ऑफ जियोलॉजी एण्ड माइनिंग, रायपुर छत्तीसगढ़।
6. गजेहिटर ऑफ इण्डिया 1978, रायपुर जिला।
7. सेंसेस ऑफ इण्डिया 2001, म. प्र. सीरिज, -1, पेपर-1, 2002, खण्ड-1।
8. पण्डा, बी. पी. 1988, जनसंख्या भूगोल पृष्ठ 138
9. चान्दना, आर. सी. 1987, जनसंख्या भूगोल पृष्ठ 138
10. सिंग, वाय, के. 1997, कृषि श्रमिको, का भू - आर्थिक विकास में भू- आर्थिक कारको का अध्ययन, अप्रकाशित शोध प्रबंध ग्र.घा. वि. बिलासपुर पृष्ठ 45 

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 विज्ञान के विभिन्न अविष्कारों ने व्यक्ति को जीवन जीने हेतु ऐशो आराम के साथ जीवन के भोग हेतु वे सारी सुविधाऐं उपलब्ध करा दी है जो सुख सुविधाऐं अतीत में हर प्रकार के साधन से संपन्न धनाड्य व्यक्तियों यहां तक की इतिहास में हुए महानतम राजाओं को भी सुलभ नहीं था। प्रौद्योगिकी में हुए क्रांति नें अभिजन वर्ग का सूचना पर एकाधिकार सम्पन्न कर दिया है। इंटरनेट कम्प्यूटर विशेषकर मोबाईल के अविष्कार ने यह चमत्कार कर दिया है कि संचार क्रांति के इस युग में हर आम और खास व्यक्ति की पहुँच उपलब्ध सूचना तक संभव हो गया है। प्रौद्योगिकी ने महान दार्शनिक अरस्तू के एक भविष्यवाणी को सच सिद्ध कर दिया है कि शारीरिक श्रम करने से मनुष्य को उस दिन निजात मिलेगी जब मशीनों द्वारा व्यक्ति के श्रम को प्रतिस्थापित कर दिया जायगा। वैसे मशीन और मानव श्रम के बीच का हिस्सा विवादस्पद रहा है। मोहन दास करमचँद गाँधी हर प्रकार के शोषण और अन्याय के विरूद्ध थे। उनका मानना था, मानव श्रम को प्रतिस्थापित करने वाली मशीनें बेरोजगारी में वृद्धि कर मेहनतकशों को शारीरिक श्रम करने से वंचित कर देती है। अतः ऐसी परिष्कृत मशीनें जिससे श्रमिकों के लिए अगर वैकल्पिक रोजगार की सुविधा उपलब्ध न हो सके, तो अरस्तू के नजर में शारीरिक श्रम करने से मुक्त व्यक्ति भले दास न कहलाये उसकी हैसियत दूसरे किस्म के दास जैसे ही है। महात्मा गाँधी मशीन तंत्र के विरोधी नही थे। उन्होने लिखा ‘‘घर में चलाने लायक यंत्रों में सुधार किये जाए,‘‘ तो मै उसका स्वागत करूँगा, लेकिन मै यह भी समझता हूँ कि जब तक लाखों किसानों को उनके घर में कोई दूसरा धंधा करने के लिए न दिया जाय, तब तक हाथ! मेहनत से चरखा चलाने के बदले किसी दूसरी शक्ति से कपड़े का कारखाना चलाना गुनाह है।

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 तकनीक, मानव बुद्धिमत्ता, सभ्यता, नव उदारवाद, वंचित वर्ग.

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  1. गाँधी जी संग्रहक-मेरे सपनों का भारत, आर. के. प्रभू. प्रकाशक, नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद -1960 14 वाँ पूर्नमुदन जून 215 - पेज नं0 -33

2. मशीनों को गलती करने से रोकना हमारी जिम्मेदारी एजेंसी लंदन प्रकाशित लेख - दैनिक भास्कर दिनांक रविवार 30 जनवरी 2022 राँची से प्रकाशित -पेज नं0 -13
3. संपादक मनोज सिन्हा, गाँधी अघ्ययन अध्याय गाँधी और पर्यावरण, ओरियंट ब्लैक स्वान प्राइवेट लिमिटेड मुख्य कार्यालय 3-6-752 हिमायत नगर हैदराबाद 500029 (आंध्र प्रदेश) पृष्ठ संख्या 154
4. 25  सितम्बर,2011 महात्मा गाँधी का विज्ञान दर्शन
5. श्वोक्त, मेरे सपनों का भारत पृष्ठ संख्या -33
6. सम्पादक अभय दुबे, समाज विज्ञान विश्व कोश खण्ड 2 जवाहर लाल नेहरू, प्रकाशक राज कमल प्रकाशन प्रा. लि. 1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली -110002 प्रथम संस्करण 2013 पृष्ठ संख्या -536
7. पूर्वाेक्त, दैनिक भास्कर दिनांक रविवार 30 जनवरी 2022 राँची से प्रकाशन पेज नं0 13
8. पूर्वाेक्त, गाँधी अध्ययन, पेज नं0 42
9. पूर्वाेक्त, दैनिक भास्कर दिनांक रविवार 30 जनवरी 2022 राँची से प्रकाशित पेज नं0-13
10. प्रधान सम्पादक अभय कुमार दुबे प्रतिमान जनवरी जून 2016 (वर्ष 4 अंक 7) समाज विज्ञान और मानविकी की पूर्व - समीक्षित अर्धवार्षिक पत्रिका वाणी प्रकाशन 21 रू0 दरियागंज, नई दिल्ली पृ0सं0 -13
11. वही पृ.सं. -12
12. कवि -रामधारी सिंह दिनकर, कुरूक्षेत्र
13. पूर्वाेक्त, गाँधी अध्ययन, अध्याय हिन्द स्वराज और एंथनी जे0 परेल पृ. सं. -71
14. पूर्वाेक्त, प्रतिमान, नेहरू और अम्बेडकर पृ0 सं0 -29 -30
15. पूर्वाेक्त, गाँधी अध्ययन, अध्याय एक वैकल्पिक आधुनिकता लेखक - अभय कुमार पृ0 सं0 -186
16. वही, गाँधी अध्ययन, अध्याय स्वराज विषय और संदर्भ, लेखक, अनिल दत्त मिश्र पृ सं0-43
17. पूर्वाेक्त, दैनिक भास्कर दिनांक रविवार 30 जनवरी 2022 राँची से प्रकाशित पेज नं0 -13
18. महात्मा गाँधी का विज्ञान दर्शन, हिन्दुस्तान 25 सितम्बर 2011
19. पूर्वाेक्त, प्रतिमान, पृ. सं. -19
20. पूर्वाेक्त, मेरे सपनों का भारत पृ. सं.-32
 

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 Reception of the literary and philosophical works from Europe is often seen in Marathi literary world. One such philosophy is Existentialism. Marathi authors have received the European, especially French Existentialism, and adapted it to their own society and culture. In the process, it is to examine whether they accept and present the philosophy per se, they refuse it or they modify it. This paper examines one of such receptions where the Marathi author rejects the conclusion of Sartrean Existentialist philosophy as presented in his play No-Exit.

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 Existentialism, Reception, Philosophy, Literary influence.

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  1. Camus, Albert. L’Etranger. Paris: Gallimard, 1942.

2. ———. The Stranger. Translated by Stuart Gilbert. New York: Vintage Books Edition, 1946.
3. Elkunchwar, Mahesh. ‘Eka Mhataryacha Khoon’. In Sultan ani Itar Ekankika. Mumbai: Mouj Prakashan Gruh, 1970.
4. Padhye, Bhau. Barrister Aniruddha Dhopeshwarkar. Mumbai: Shabd Publication, 1967.
5. Paranjape, Sai. Aalbel. Mumbai: Popular Prakashan, 2015.
6. Sartre, Jean Paul. Being and Nothingness. Translated by Hazel E. Barnes. Reprint Edition. Simon and Schuster, 1993.
7. ———. Huis Clos suivi de Les Mouches. Paris: Gallimard, 1947.
8. Sharp, H, ed. Selections from Educational Records of the Government of India - Part 1 - 1781-1839. Calcutta, 1920.
 

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 डॉ. अम्बेडकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पद दलित लोगों के लिए समर्पित विद्रोही नेता थे। संविधान और विधिक क्रांति को समझने वाले लोग उन्हें सामाजिक न्याय का मसीहा और सामाजिक दासता के कट्टर शत्रु के रूप में स्मरण करते हैं।

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 छुआछुत, पुरूषार्थ, अस्पृश्यता, अविष्मणीय।

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  1. Introduction to the constitution of India -D.D Basu

2. Political Theory -EDDY Asirratham, Page 26.
        3. आधुनिक भारत का इतिहास ़-वी.एल गोपाल पृष्ठ. 171
4. ई.एच.कार-पुष्ठ. 21
5. ई.एच.कार-पुष्ठ. 14

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 मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मानव प्राणी होने के नाते मनुष्य अपने आस-पास की दुनिया को सामाजिक संज्ञान के द्वारा ही समझते है। वह प्रत्येक क्षण दूसरो के तथा समूहों के संपर्क में आता है, उन्हें महसूस करता है, उनके साथ कार्य करता है। सामाजिक संज्ञान वह अनोखी संज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मानव दूसरों के साथ अपने संबंधो को संसाधित, प्रक्रिया एवं पुनः स्मरण करते हैं। इसके अंतर्गत दूसरों के संबंधो का विवरण, लोगों के शाब्दिक एवं अशाब्दिक संचार तथा समूह की गतिशीलता को समझना समाहित हैं।

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 सामाजिक संज्ञान, बाल विकास, संचारण्

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  1. https://www.verywellmind.com/social-cognition-2795912.

2. https://en.wikipedia.org/wiki/Social_cognition.   
3. https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/B9780123851574004619. 
4. https://www.nios.ac.in/media/documents/secpsycour/English/Chapter-15.pdf. 
5. https://onlinelibrary.wiley.com/doi/abs/10.1002/9781119170235.ch9.
6. https://www.frontiersin.org/articles/10.3389/fpsyg.2016.01762/full.
7. https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC2375957/.
8. https://nobaproject.com/modules/social-cognition-and-attitudes.

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 During the COVID-19 pandemic, the healthcare workers especially nurses were struggling day and night to provide care to the needy. This unexpected situation has increased the workload on nurses and their demand has increased worldwide. In addition to this, the rising number of emergency cases and the uncertainty regarding vaccine imposed a psychological disturbance on nurses. The pandemic amplified the issues like job stress, workload, burnout, and nurse’s turnover which was there even before the pandemic. Increasing opportunities overseas attract many nurses to migrate to other countries. The pandemic is not over yet so it is vital for nations to strengthen their healthcare sector by filling the staff shortage. The hospitals should adopt proper retention strategies to retain their valuable employees. This study aims at examining various strategies adopted by private hospitals to retain their nurses during the pandemic.

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 Pandemic, Staff burnout, Turnover, Retention strategies.

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 1. Alsubaie, Abdullah & Isouard, Godfrey. (2019). Job Satisfaction and Retention of Nursing Staff in Saudi Hospitals. Asia-Pacific Journal of Health Management. 14. 68-73. 10.24083/apjhm.v14i2.215.

2. Gaffney,T.(2021).Retainingnursestomitigateshortages.Myamericannurse. https://www.myameri cannurse.com/beyond-the-pandemic-retaining-nurses-to-mitigate-shortages (accessed July 10, 2022).
3. Iqbal, S., Hashmi, M. S. (2015). Impact of perceived organizational support on employee retention with mediating role of psychological empowerment. Pakistan Journal of Commerce and Social Sciences, 9, 18-34.
4. Singh, S., Dixit, P. K. (2011). Employee retention: The art of keeping the people who keep you in business. International Journal of Business and Management Research, 1, 441-448.
5. PostCOVID19NurseRetentionStrategies (2021). https://www.healthstream.com/resource/blog/post-covid-19-nurse-retention-strategies (accessed July 11, 2022).

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 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘‘अशोक के फूल‘‘ एक ललित और सांस्कृतिक निबंध है। भारतीय साहित्य और समाज में अशोक पुष्प किस प्रकार आया, इस पर विचार करते हुए कहा गया कि ऐसा तो कोई नहीं कह सकता कि कालिदास के पूर्व भारत में इस पुष्प को कोई नहीं जानता था। यह पुष्प कालिदास के काव्य में अपूर्व शोभा और सुकुमारता के साथ वर्णित हुआ है। अशोक वृक्ष और उसके फूलों के माध्यम से भारत के प्राचीन इतिहास, संस्कृति, जीवन दृष्टि, धर्म, संसाधनों तथा विभिन्न जातियों के विषय में जानकारी दी गई है। इस निबंध में मानव की जीवन जीने की शक्ति पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मानव की जीवनी शक्ति अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों को रौंदते हुए आगे बढ़ती जाती है। इसी से समाज और संस्कृति का रुप परिवर्तित होते रहता है। इसी परिवर्तन ने अशोक वृक्ष के महत्त्व को भी भुला दिया। लेखक अशोक के फूल के वैभवशाली अतीत का स्मरण करते हैं परंतु कोई भी बहुमूल्य संस्कृति सदैव नहीं बनी रह सकती है। परिवर्तन इस संसार का नियम है। लेखक का मानना है कि अशोक आज भी उसी मस्ती में झूम रहा है, जैसा कि वह दो हजार वर्ष पहले था। अतः कहीं भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कुछ भी नहीं बदला है, जो भी परिवर्तन हुआ है, वह मानव की मनोवृत्ति बदलने के फलस्वरुप हुआ है। इसे मानव की स्वार्थपरता या अवसरवादिता कहने की अपेक्षा विकासशील दृष्टि मानते हुए मानवीय ही मानना चाहिए। यही आचार्य जी की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि का मूल है।

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 दुर्दम, अनाहत, जिजीविषा, निर्मम, कर्णावतंस, सहृदय.

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 1. शर्मा विनय मोहन (सं.), नये निबंध, कैलाश पुस्तक सदन, ग्वालियर, 1965।

2. नलिन जयनाथ, हिन्दी निबंधकार, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1978।
3. सिंह फणीश, हिन्दी साहित्य का परिचय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1991।
4. भारती धर्मवीर (स.), हिन्दी साहित्य कोश, ज्ञानमंडल प्रकाशन, वाराणसी,1985।
5. तिवारी रामचंद्र, हिन्दी गद्य साहित्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1971।
6. शर्मा अनुराधा, भारतीय साहित्य के निर्माता, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, दिल्ली, 1999।
7. चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिन्दी गद्य साहित्य, विन्यास और विकास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008।
8. चौहान कर्णसिंह, साहित्य के बुनियादी सरोकार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1984।
9. चौहान शिवदान सिंह, हिन्दी गद्य साहित्य, राजकमल प्रकाशन, बम्बई, 1954।
10. जैन निर्मला, हिन्दी आलोचना की बींसवी सदी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,1986।
11. द्विवेदी रामअवध, हिन्दी साहित्य के विकास की रुपरेखा, भारती भंडार प्रकाशन, इलाहाबाद, 2002।

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 मुक्तिबोधः साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ दूधनाथ सिंह की आलोचनात्मक पुस्तक है। यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन से वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में दूधनाथ सिंह ने मुक्तिबोध के चिंतन, काव्य-रचना, प्रक्रिया पर गंभीरता पूर्वक विचार किया है। मुक्तिबोध के व्यक्तित्व एवं उनकी काव्य संरचना पर अब तक इस प्रकार से विचार नहीं हुआ है। यहाँ उनकी काव्यगत विशेषताओं, रचना-प्रक्रिया की लेखक ने पड़ताल की है। पुस्तक में ‘प्रारंभिक कविताएँ’, ‘तार सप्तक’, ‘प्रेम कविताएँ’, ‘जमाने का चेहरा’, ‘तिमिर में समय झरता है’, ‘पार्टनर - तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’, ‘उन्हें युद्ध की ही करने दो बात’, ‘अंधेरे में’, ‘ब्रह्म राक्षस की तीसरी पीढ़ी’, ‘साँवली हवाओं में काल टहलता है’, ‘चंबल की घाटियाँ’ और ‘आत्मचित्र’ जैसे शीर्षकों में विभक्त कर उनकी कविताओं पर चिंतन हुआ है। दूधनाथ सिंह कहते हैं- मुक्तिबोध बातचीत और बहस में अक्सर सबसे पहले यह पूछते थे, पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? वे जिससे संवाद कर रहे हैं, उसकी विचारधारा क्या है। वह जाने-अनजाने कैसे सोंचता है। उसके विचार तर्क और साक्ष्य के स्तर पर कहाँ ठहरते हैं। जनता, समाज और दुनिया के लिए उसके विचार कितने उपयोगी, लाभप्रद या हानिकर है। उनका कोई ठोस आधार है या वे मात्र उसके ‘मनस्तरंगवाद’ की उपज है- ये सारी बातें जानने-समझने की कोशिश करते हुए वे देश-दुनिया, समाज-इतिहास, विज्ञान और साहित्य इत्यादि पर अपनी बहस आगे बढ़ाते थे और सामने वाले को समझने-समझाने का प्रयास करते थे।1 सुप्रसिद्ध आलोचक जीवन सिंह ने इस पुस्तक के संबंध में कहा है- दूधनाथ सिंह ने मुक्तिबोध के जीवन और रचना-संघर्ष को चार स्तर पर देखा है। पहला वामपंथियों-परंपरावादियों से जो आगे देखने के बजाय पीछे की ओर ज्यादा देखते हैं। दूसरा, कठमुल्ला मार्क्सवादियों से जो विचारधारा को एक स्थिर दर्शन की तरह व्यवहार में लाते हैं। तीसरा, उन वामपंथियों से, जो अपने लाभ-लोभ के लिए खेमा बदलने में कोई संकोच नहीं करते और चौथा उनका अपने संशयों, संस्कारों और आस्थाओं से। कहना न होगा कि जिस व्यक्ति के रचनात्मक स्तर पर संघर्ष के इतने आयाम रहे हैं, उसने अपनी रचना के लिए कितना अटूट, ईमानदारी, अटल, तल स्पर्शी और बहुआयामी संघर्ष किया होगा, यह हम समझ सकते हैं। यही मानना पड़ता है कि मुक्तिबोध के संघर्ष किसी लेखक के सामान्य नहीं है।2 दरअसल दूधनाथ सिंह की यह पुस्तक उनकी आलोचनात्मक दृष्टि को समझने में काफी सहायक है।

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 प्रवृत्तियाँ, अंतर्वस्तु, फंतासी, आत्महंता, पॉलिटिक्स.

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 1. सिंह, दूधनाथ. मुक्तिबोधः साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ. नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन प्रा॰ लि॰, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, पहला संस्करण-2013, पृ॰ 83.

2. चतुर्वेदी, संतोष कुमार (संपादक). अनहद-9. पृ॰ 224.
3. सिंह, दूधनाथ. निरालाः आत्महंता आस्था. इलाहाबाद, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, आठवाँ संस्करण- 2014, पृ॰ 16.
4. अग्रवाल, विजय (संपादक). साहित्य विकल्प. अंक-06, पृ॰ 317.
5. सिंह, दूधनाथ. लौट आ, ओ धार. पृ॰ 32.
6. सिंह, दूधनाथ. सबको अमर देखना चाहता हूँ. इलाहाबाद, साहित्य भण्डार, 50, चाहचन्द (जोरो रोड), प्रथम संस्करण-2017, पृ॰ 55-56.
7. सिंह, दूधनाथ. अपनी शताब्दी के नाम. इलाहाबाद, साहित्य भण्डार, 50, चाहचन्द रोड, प्रथम संस्करण-2014, पृ॰ 67.
8. सिंह, दूधनाथ. महादेवी. नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन प्रा॰ लि॰, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, पहली आवृत्ति-2011, पृ॰ 121-22.
9. अग्रवाल, विजय (संपादक). साहित्य विकल्प. अंक-06, पृ॰ 332.
10. चतुर्वेदी, संतोष कुमार (संपादक), अनहस-9, जून 2020, पृ. 178।

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 भारतीय संविधान के अनुरूप बैगा आदिवासी के शैक्षणिक विकास व आर्थिक उन्नति के लिए योजना बनी हैं उन्हें क्रियान्वित कर संबंधित वर्ग के विकास यात्रा में शामिल करने के निरंतर प्रयास हुए इन प्रयासों के परिणाम भी सामने आए हैं। इन वर्गाे के लिए मानव अधिकार सूचना में अपेक्षाकृत सुधार परिलक्षित हुआ हैं। साक्षरता की प्रतिशत बढ़ा है, सामाजिक आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप इन वर्गों के प्रतिष्ठा में लगातार वृद्धि हुई हैं। शासन प्रशासन ने इसके सहभागिता सम्मानजनक रूप में बड़ी हैं फिर भी विकास की यात्रा अभी लंबी हैं। सरकार के द्वारा आदिवासी बैगा विकास योजना के लिए विभिन्न कानून योजना बनाए गये हैं।

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 बैगा, सामाजिक, आर्थिक विकास, परियोजनाण्

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 1. पटेल, जी. पी. (1991) , ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक समस्या एवं समाधान (मध्यप्रदेश के संदर्भ में) बुलेटिन ऑफ द ट्राईबल रिसर्च एंड डेवलपमेंट भोपाल वॉल्यूम -19 नंबर ,1.2 पृष्ठ से 20 -27।

2. सिह, एम ,(1988) कामकाजी महिलाओ, एक सामाजिक वैज्ञानिक विशलेषण, योजना वर्ष -32 .अंक 19  पृष्ट 20-27, नईदिल्ली।
3. सिह, पीताम्बर (2016), बैगा जनजाति की सामाजिक स्थिति एवं समाज कार्य हस्तक्षेप।
4. तिवारी, शिवकुमार, (1984) भारत की जनजातियां नाईनर बुक सेंटर नई दिल्ली, तिवारी, एस. के मध्य प्रदेश के आदिवासी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल।
5. वैष्णव, टी.के (2004), छत्तीसगढ़ की अनुसूचित जनजातियां। 
6. यादव, अंजली (2012), छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में बैगा जनजाति के विकास में पंचायती राज व्यवस्था की भूमिका।

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 सर्वविदित है कि विकास एक सतत् एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है। वर्तमान में प्राकृतिक असन्तुलन एवं पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए संपोषणीय (सतत्) विकास की परम आवश्यकता है। संपोषणीय विकास से अभिप्राय उस विकास से है जो वर्तमान की आवश्यकताओं को तो पूरा करता ही है भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं के प्रति भी पूर्ण जबाबदेही रखता है। विश्व में तीव्र गति से हो रहे विकास एवं प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधंुध उपभोग इस बात की गवाही देता है कि विश्व में संपोषणीय विकास की घोर अनदेखी की जा रही है जिसके परिणामस्वरुप विश्व में कई तरह की प्राकृतिक आपदायें एवं महामारियाँ आ रही है। कोविड-19 एवं इसके नये-नये वेरिऐंट का आना इसका ज्वलन्त उदाहरण है जिससे पूरी दुनिंया जूझ रही है। इसलिए इस मानवता को बचाने के लिए विकास के ऐसे मानक तैयार करने होंगे जो संपोषणीय विकास का पर्याप्त बन सकें। इस हेतु आज एक विशेष क्रियानीति की आवश्यकता है।

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 संपोषणीय विकास, पर्यावरणीय संतुलन, प्राकृतिक आपदायें एवं महामारियाँ, वैश्विक तपन, प्रदूषण नियंत्रणण्

Read Reference

1. https://www.drishtiias.com

2. https://www.scientificword.in
3. मदन जी0आर0, परिवर्तन एवं विकास का समाजशास्त्र, विवेक प्रकाशन जवाहर नगर, दिल्ली-7,पृ0-162।
4. https://www.jagranjosh.com
5. मदन जी0आर0, परिवर्तन एवं विकास का समाजशास्त्र, विवेक प्रकाशन जवाहर नगर, नई दिल्ली-7 पृ0 157 से 158।
6. गोयल अश्विनी कुमार, पर्यावरण संरक्षणः जनसंख्या प्रबन्धन एवं सतत् विकास, साहित्य संस्थान, ई- 10/660, उत्तरांचल कालोनी (निकट संगम हाल) लोनी, गाजियाबाद (उ0प्र0) पृ0 सं0 112-113।
 

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 ‘Brands are like people in that they have feelings and motivations.’ To be a loyal friend to the people (clients), they must be born, nourished, and nursed, then made strong and responsible so that they may develop connections with the clients that are both mutually beneficial and fulfilling, and ultimately become long-term businesses. This kind of brand is a source of pride for their parents (organization and corporation). A brand’s greatest strength is in its ability to build and maintain long-term connections with its customers, employees, and other stakeholders. Future development and expansion may be expected from these brands. ‘They keep organizations afloat and swimming in times of despair as well as helping those reaches their highest points during boom times.’ There is an increasing emphasis on developing powerful brands in today’s business world. Since its inception, the notion of brand ownership and its management has been under the spotlight to an unprecedented degree. Many corporations are focused on a few well-known names, rather than a wide range of products.

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 Branding, Consumer, Consumer buying behavior, Fashion industry.

Read Reference

 1. Gajjar., ‘’Factor affecting consumer behavior’’, vol. 1, no. 2, April 2013.

2. Lim, K. a., ‘’Consumer brand classifications; An assessment of culture-of-origin versus the country of origin’’, Journal of Product and Brand Management, vol. 10, no.2, pp. 120-136, 2001.
3. Prabhu, J.C., Chandy, R.K. and Ellis, M.E., ‘The impact of acquisitions on innovation: poison pill, placebo, or tonic’’, Journal of Marketing, vol. 69, no. 1, pp. 114-30, 2005
4. Keller, K.L., ‘’Strategic Brand Management: Building, Measuring, and Managing Brand Equity, 2nd ed., Prentice-Hall, Upper Saddle River, NJ, 2003
5. Rundle-Thiele, S. a., ‘’A brand for all seasons? A discussion of brand loyalty approaches and their applicability for different markets’’, Journal of Product & Brand Management, vol. 10, no. 1, 2001.
6. Keller, K.L., ‘’Strategic Brand Management: Building, Measuring, and Managing Brand Equity, 2nd ed., Prentice-Hall, Upper Saddle River, NJ, 2003.
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8. Goldsmith, R. F., ‘’Status consumption and fashion behavior: An exploratory study’’, Association of Marketing Theory and Practice Proceedings, pp. 309-316, 1996
9. Kahle, L.R. & Kim, C.H. (2006) ‘Creating images and psychology of marketing communication.’ New Jersey: Lawrence Erlbaum Associates, Inc., Publishers.
10. Consumer Behavior, 6th Edition, by Hawkins, Best ad Coney.
11. Consumer Behavior, 6th Edition, by Lean G. Schiffman and LesliclazanKanuk.
12. Kevin Lane Keller (2004). Strategic Brand Management, 2ndedition, Pearson Education, New Delhi.

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 According to feminist communication researchers, social media, like conventional media, has affected popular understanding of rape and sexual assault. Furthermore, rape-related tweets have been proven to be prejudiced towards women as perpetrators of sexual assault (Hasinoff, 2015). Because public perception and the media create a pervasive environment in which notions about sexual assault and gender inequality circulate, social media depictions are investigated to uncover these prevalent opinions. This study focuses on a qualitative analysis of the revival and normalisation of hate against women as well as prevalent myths and stereotypes in the social media environment, like Facebook, within the context of the perception of violence against women created by the mainstream media or traditional media. This paper examines the shifting of myths and stereotypes from the offline to the online world in three central ways. It sheds light on the mobilization of the audience on social media on women’s issues; a positive or negative shift in the continuum of offline violence, myths, and stereotypes against women into the online environment; and how damaging social norms proliferate and are reproduced in social media.

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 Social media, Sexual Violence, Online hate against Women, Traditional Media, Facebook, Gender Oppression.

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 1. Bhalerao, Y. P. (2018, September 17). Blame unemployment for rape, but not our misogynist mindset. SheThePeople TV. Retrieved July 12, 2022, from https://www.shethepeople.tv/blog/even-blame-unemployment-rape-misogynist-mindset/ 

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13. Sood, E. (2020, April 15). CYBER CRIMES-ARE WOMEN BEING SOFT TARGETS. ILSJCCL; journal.indianlegalsolution.com. https://journal.indianlegalsolution.com/2020/04/15/cybercrimes-are-women-being-soft-targets-ekta-sood/
14. World Health Organization. (2010). Preventing Intimate Partner and Sexual Violence Against Women ... In WHO.

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 शिक्षा, जगत् के उत्कर्ष की आधार शिला है। आज तक के सभी शिक्षा आयोगों ने भी शिक्षा में आध्यात्मिकता एवं मूल्यों के महत्व कोे स्वीकार किया है। कुछ महान विभूतियों की बात अगर छोड़ दें तो सामूहिक रूप से हम सभी लोग अपने मूल्यों एवं नैतिक सिद्धाँतों का पालन नहीं कर पाए। यही कारण है कि लंबे समय से धीर-धीरे इन मूल्यों का ह्यस होता जा रहा है और आज भी हम मूल्य ह्यस के दौर से गुजर रहे है। वर्तमान में यह नही कहा जा सकता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ कोटि के नागरिकों का निर्माण कर पा रही है। यदि वर्तमान में कोई कमी दिखाई दे रही है तो वह है हमारी शिक्षा का मूल्यपरक न होना। वास्तव में शिक्षा और नैतिक मूल्यों को अलग नहीं किया जा सकता है। नैतिक मूल्यों से रहित शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है। नैतिक मूल्य ही हमारे व्यवहार में जीवमात्र के प्रति दया, करूणा, ममता और प्रेमभाव विकसित करते है इसलिये समस्त विद्यालयी क्रियाकलापों में यथोचित नैतिक मूल्यों के विकास को प्रेरित करने वाली परिस्थितियाँ पैदा करनी होंगी और विद्यालय के परिवेश को प्रेरणा का स्रोत बनाना होगा, तभी छात्रों में शिक्षा द्वारा नैतिक मूल्यों का विकास सम्भव हो सकेगा।

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 नैतिक मूल्य, अगड़ी जाति, पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातिण्

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 1. कल्याण ‘शिक्षांक‘ सम्पादक- राधेश्याम खेमका, गीताप्रेस, गोरखपुर, वर्ष 1988। 

2. पाण्डेय, रामशकल, शिक्षा के दार्शनिक और समाज शास्त्रीय आधार, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा (उ. प्र.)।
3. पुरकैत, बी. आर. (1986) न्यू एजुकेशन इन इंडिया, अम्बाला, असोसिएट्स पब्लिशिंग, अम्बाला।
4. गीत, भाई योगेंद्र (1990) शिक्षा सिद्धान्त की रूप रेखा, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा।
5. चौबे, सरयू प्रसाद, तुलनात्मक शिक्षा, अग्रवाल प्रकाशन, आगरा।
वेबसाइट्स
1. www.google.com
        2. www.wikipedia.org

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 पण्डित अम्बिकादत्त व्यास आधुनिक संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनकी लिखित रचना शिवराजविजय, शिवाजी के जीवनचरित और महाराष्ट्र की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित है। शिवराजविजय में कुल बारह निःश्वास हैं। प्रत्येक निःश्वास पण्डित अम्बिकादत्तव्यास जी की अद्भुत कल्पना का संयोजन है। इस सन्दर्भ में पण्डित अम्बिकादत्तव्यास जी का आलङ्कारिक विधान इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है। कवि व्यास जी अपने विभिन्न अलङ्कारों के माध्यम से इस ग्रन्थ को सजाया है जिससे इस ग्रन्थ की प्रासङ्गिकता दिनानुदिन बढ़ती जा रही है। राष्ट्र के लिए समर्पित इस ग्रन्थ में आलङ्कारिक विधान एक अद्भुत सौन्दर्य का निदर्शन कराता है।

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 कविताकामिनी, चित्ताकर्षक, उपन्यास, संयोजन, दृष्टिगोचार, वक्तव्यण्

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  1. मिश्र, रमाशङ्कर, ‘शिवराजविजयः’, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण-2018 ई॰, विराम/निःश्वास-1/1, पृ॰ 10.

2. तत्रैव - 1/1, पृ॰ 50.
3. तत्रैव - 1/1, पृ॰ 69.
4. तत्रैव - 1/2, पृ॰ 167.
5. तत्रैव - 1/3, पृ॰ 261.
6. तत्रैव - 1/2, पृ॰ 130.
7. तत्रैव - 1/1, पृ॰ 17.
8. तत्रैव - 1/4, पृ॰ 368.

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 Education during Vedic period was fundamentally religious instruction and was selective and monastic in character. The entire treasure of Vedic literature contains religious philosophies, ideas and moral principles. The basic aim of education was the propagation of those ideas, the ultimate aim however being the realization of the true knowledge and the absolute. A study of ancient scriptures of the Vedic and the Buddhist periods reveals that the development of character and personality of the learners was an development of character and personality of the learners was an essential objective of education in ancient India. The preachers of that essential objective of education in ancient India. The preachers of that paid adequate attention to inculcate values along with the mental uprightness.

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 Education, Academic Activities, Parent Guidance, Values.

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 1. Annamma A.K., “values, Aspiration and adjustment of college students in Kerala”, Ph.D., Kerala University, Vol. Fourth Survey of research in education, P. 1352, 2007

2. Dubey Ramjee, “A critical study of the concept and implementation of values education in India at school level”, Ph.D. (Edu) Fifth survey of research in education, Vol. (ii) bP.1336, 2004.
3. Farzam A.K., “A study of parental influence on occupational values and job preferences of guidance school student”, Ph.D. (Edu), AMU, Vol. Co. Third survey of research in education, P. 252, 1979.
4. Hebbarre VN.Economic value of education: A case study of the electronics and electrical industry in Poona metropolitan city ,M.Phill (edu), Poona University, Fifth survey of research in education,Vol (ii), p,859, 2009.
5. Kundu N” Value patterns of college students and its relation to psycho -social variables”. Ph.D (Psy), Calcutta University, Third survey of research in education, P. 149,1982.
6. Sinha Malati, “Role of educational values in social and occupational mobility”, Ph.D. (Edu), Patna University, Fifth survey of research in education, Vol. (ii), P.1025, 2010.
7. Sinha S.,” Valuational generation gap in the view of students and their parents”. Ph.D. (Psy), Agra University, Third survey of research in education, P. 21 9, 2005

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 भारत आदिकाल से ही प्राकृतिक संपदा संपन्न राष्ट्र रहा है यहां अनेक विद्वानों ने समय-समय पर जन्म लिया और दुनिया को अपना लोहा मानने के लिए विवश कर दिया। प्राचीन काल में अनेक शासकों ने भारत पर आक्रमण करके भारत को आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में क्षति पहुंचाई इसी क्षेत्र में एक क्रम चलता रहा जो भी विदेशी शासक अपने यहां आया उसने यहां लूटपाट की और यहां से लूटा हुआ धन देकर अपने देश में चला गया। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। इसी क्रम में अंग्रेज भारत आए उन्होंने पहले तो यहां व्यापार करने के लिए अपनी कंपनियां लगाई। धीरे-धीरे व्यापार करते-करते उन्होंने यहां पर फूट डालो राज करो की नीति अपनाकर भारत पर कब्जा कर लिया। यहां से कच्चा माल ले जाकर वह इंग्लैंड से पका हुआ माल बनाते हैं, जिसे ऊंचे दामों पर बेचते थे यही क्रम चलता रहा। प्राकृतिक संपदा और धन-धान्य से संपन्न भारत आज अविकसित हो गया अब क्योंकि स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में अपनी सरकार है, अपने नियम हैं लेकिन हम उन नियमों से कहां विकसित अवस्था में पहुंच पाएंगे क्योंकि साधन संपन्नता हमारे पास बहुत ही कम है। सरकार नए कार्यों से भारत को विश्व में स्थान दिलाने के प्रथम स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत् है। भारत की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बढ़ोतरी कर रही है, उन्नति की ओर अग्रसर है। अब देखना यह होगा कि क्या हम अपने मकसद में कामयाब हो पाएंगे।

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 स्वतंत्रता, ब्रिटिश शासन, दादा भाई नौरोजी, अर्थव्यवस्था, ग्रामीण.

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 1. भारतीय अर्थव्यवस्था --मिश्रा एवं पूरी

2. पावर्टी ऑफ इंडिया --दादाभाई नरोजी 
3. भारत की विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का अध्ययन
4. आर्थिक विकास एवं नियोजन --- डॉ.बी सी सिन्हा 
5. आर्थिक  नियोजन एवं विकास--डॉ रीता माथुर
6. वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट
7. योजना मासिक पत्रिका 
8. कुरुक्षेत्र मासिक पत्रिका

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 In India, women make up half of the population. For female entrepreneurs, starting a business is not an easy task. It is tough for women entrepreneurs to succeed despite the Government’s efforts to raise awareness and educate the public. Rural and urban areas are distinct in Chhattisgarh. Urban women are better educated, technically trained, aware of their rights, and self-assured than their rural counterparts, who are less free to make decisions, lack technical soundness and education, aren’t aware of Government programmes or their rights and aren’t financially self-supportive. So, the current study intends to investigate the concerns, obstacles, and favourable and motivating aspects of tribal women entrepreneurs in Chhattisgarh settings. SWOC analysis was employed on tribal women entrepreneurs in Chhattisgarh. 

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 Entrepreneur, Chhattisgarh, Tribal women, Swoc.

Read Reference

 1. Anbuoli,  P. (2019). “Challenges and opportunities of women entrepreneurship in small scale sector.” Pramana research journal.

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4. Kaikini Anjan A , Nirtin n s et. A. (2019). “Role of tribal women entrepreneurs inupliftment of tribes in karwar taluk.” Research gate.
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6. Sowjanya S. Shetty, V. Basil Hans et. a. 2019. “Women Entrepreneurship in India - Issues and Challenges.”
7. T. Sobha Rani, P. Neeraja et. a. (2020). “An Empirical Study on Problems of Tribal Women Entrepreneurs in Nellore District.” Paideuma Journal.

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 In the present study histopathological changes caused by lead nitrater in 15 mg/iwere noted in Glossogobius giuris. Toxicological effect in the alimentary canal showed rupturing of the villi, fusion for mucusol folds, vacuolization and swelling of lateral sides. Liver changes were seen as atrophy of hepatocytes, vascuolization and degeneration of cell boundaries of hepatocytes. As the toxicants enter through the gastro-intestinal tract, so it causes acute effects in liver and mucosal ruptures.

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 Histopathological, Fish, Glossogobius.

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  1. Bowser,P R. Matineau;D Sloan; R.Brown, M and Carysone; C Carvatho; 1990, Prevalence of liver lession in Brown bull heads from a polluted site, a non polluted reference on the Hudson river, New York(U.S.A) AQUATE,ANIM,HEALTH 2(3) :177-181

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 Including India most of the world learns English as a 2nd language and consequently the age at which this learning begins is higher for them than those for whom it is the first language. For learning English as a second language there are two dissimilar purposes or inspirations that people usually have, they are to be able to read and understand English texts and also be able to write in English and to be able to have effective verbal communication in English. In India, if we ask a question to any Indian parents in which school they want their children to get an education in; then their answer definitely would be, ‘in any good English Medium school. English has left this much deep impact in the minds of Indian people. Even though it is a foreign language, we get impressed by a person who is a fluent and excellent speaker of English or even consider them as intellectual people. There is no exaggeration in saying that, “English has become language of high estimation.” Every language has a curtailment for its reach but English has none. Even if an individual’s group of English is restricted but there is no limit to reaching out to the world at large. Whatever be the level of mastery over this international language, English can be pondered to stand for empowerment, novelty, creation, learning, internet, science, success and honors. It is ample for most people to procure a rock-bottom level of English for a majority of aspiration.

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 English Language, Communication Skills, Learner.

Read Reference

1. Enokizono,T.” English in india: possibilities of non-native English’s For inter Asian Communication”. ICS, 2000 ,pp. 29-37. 

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