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Publishing Year : 2021

June To August
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 यह शोध अध्ययन भारतीय जनजातियों का समाज में मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के विशेष संदर्भ में है। शोधार्थी के रूप में जनजातिय समस्याओं पर व्यापक अध्ययन करके ही इनकी समस्याओं से अवगत करा सकतें है, अर्थात ग्राम्यांचल में रहने वाली जनजातिय समूह की मूल संरचना, सभ्यता संस्कृति, समाजिक मनोवैज्ञानिक के व्यापक अध्ययन के पश्चात ही हम इनके मूल समस्याओं को समझ सकते है।

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झारा जनजाति, मनोवैज्ञानिक, शिक्षा, सम्यता.

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1. भट्टाचार्य, सौरिश (2011), ’’चित्रकोला इन्टरनेशनल मैक्जीन ऑन आर्ट एण्ड डिजाईन, 01(02), अगस्त 2011, 10-13,

2. चटर्जी, सुभरजीत (2015), ’’द एनसिएन्ट क्राफ्ट ऑफ ढोकराः ए केस स्टडी एट बीकना एण्ड दरियापुर इन वेस्ट बेन्गॉल’’ इन्टरनेशनल रिसर्च जर्नल ऑफ इन्टरडिसिप्लीनरी एण्ड मल्टीडिसिसप्लीनरी स्टडी, 01(04), मई 2015, 19-23,
3. झा, कृष्णकुमार (1987) ने अपने अध्ययन ’’बस्तर की जनजातियों की शिक्षा स्थिति का विश्लेषणात्मक अध्ययन ’’अप्रकाशित शोध, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.), 392-397
4. पटेल आज्ञामनी (2008) रायगढ़ जिले के अनुसूचित जनजातियों का स्वास्थ्य एवं पोषण स्तर (उराव जनजाति के विशेष संदर्भ मे), अप्रकाशित शोध, के.जी. कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रायगढ़ (छ.ग.) 171-185
5. प्रेमी, जितेन्द्र कुमार; सोनी, प्रवीण कुमार; नागवंशी, बृजेश कुमार; खु्टे, डिकेन्द्र (2013). विशेष पिछड़ी (आदिम) जनजाति कमारः एक नृजातिवृतांततात्मक परिदृश्य. जे. ह्यूमेनेस्टिक एण्ड सोशल साईन्स; 4(1):जनवरी-मार्च, 179-184
6. सिंह सोमेश नारायण (2011) ’’चित्रकूट मण्डल के अनूसूचित जनजाति का शैक्षिक सर्वेक्षण’’ अप्रकाशित शोध, वीर बहादुर सिह पूर्वाचल विश्वविद्यालय,जौनपुर, http://sodhganga.inflibnet.ac.in.

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  पर्यटन आज के युग का अति महत्वपूर्ण चर्चा का विषय मन जाता है। समाज में देखे जाने वाले परिवर्तन का मुख्य कारक पर्यटन है। आज के युग में आवागमन के साधन, रास्ता की उपलब्धि और बढ़ती आय पर्यटन को तेजी से बढ़ावा दे रहे है, लेकिन उनके साथ कुछ कारको ने पर्यटन में चुनौती भी कड़ी की है। आपके शहर के प्रमुख आर्थिक विकास उद्देश्यों में से एक शहर से बाहर और देश के बाहर आगंतुकों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करना और ऐसी गतिविधियां प्रदान करना है, जो आगंतुकों को आने के लिए प्रोत्साहित करती हैं और उनके ठहरने के अतिरिक्त दिनों का विस्तार करती हैं। आगंतुकों की श्रेणी में पेशेवर और व्यावसायिक विकास बैठकों और सेमिनारों में भाग लेने वाले व्यक्ति शामिल होने चाहिए, जो “ऐड-ऑन“ पर्यटक में रुचि रखते हैं, सांस्कृतिक और विरासत पर्यटन के विकास पर ध्यान केंद्रित करके, और अपने शहर की क्षमता का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करके, आप कई अन्य समुदायों द्वारा सफलतापूर्वक नियोजित कर पर्यटन में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

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  समाज, संस्कृति, पर्यटन, विरासत.

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  1. Advisory Council on Historic Preservation. Heritage Tourism and the Federal Government, Federal Heritage Tourism Summit, Report of Proceedings. Washington, DC, November 14, 2002. 

2. Raymond A. Rosenfeld, CULTURAL AND HERITAGE TOURISM Eastern Michigan University, 2008.
3. Agyei-Mensah, Samuel. “Marketing its Colonial Heritage: A New Lease of Life for Cape Coast, Ghana?” International Journal of Urban and Regional Research 2006  
4. Barré, Hervé. “Heritage Policies and International Perspectives: Cultural Tourism and Sustainable Development.” Museum International, 54:1-2 (2002): 126-130.  
5. Council of Europe. Cultural Routes. http://www.coe.int/t/e/cultural_cooperation/heritage/european_cultural_routes/_Summary.asp#TopOfPage, 2007    
6. ठाकर बचुभाई, यात्रा, ‘साधना’ यात्रा विशेषांक, अहमदाबाद- २००२ 
7. जानी एस.वी., एवं ब्रह्म्भट्ट आर.डी., भट्ट डी.वी., जगत के इतिहास की रुपरेखा, राजकोट, 1970.
8. कोराट पी.जी., एवं देसाई महेबुब, इतिहास में प्रवासन विनियोग, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद 2004.

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 योग शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में स्वस्थ विकास को न केवल गति प्रदान करता है; बल्कि सकारात्मकता की ओर ले जाकर इहलौकिक जीवन को सार्थक बनाता है। यह विकास के आठ चरणों से युक्त अभ्यास की एक अति-प्राचीन प्रणाली है। ‘योग’ शब्द संस्कृत के ‘युज्’ धातु से उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है- ‘जुड़ना और एकजुट होना।’ व्यक्ति शारीरिक-रूप से स्वस्थ होता है तो उसका मन केंद्रित और तनाव मुक्त रहता है। स्व-जनों के साथ जुड़ने और सामाजिक-रूप से स्वस्थ संबंधों को बनाए रखने में यह सहायता प्रदान करता है। जब मनुष्य स्वस्थ होता है तो वह आंतरिक ‘स्व’ के साथ और दूसरों के परिवेश के साथ बहुत गहरे स्तर पर जुड़ने की कोशिश करता है जिससे धीरे-धीरे वह आध्यात्मिक स्वास्थ्य की तरफ मुड़ने लगता है। यह शरीर, मन, चेतना और आत्मा को संतुलन में लाता है। ‘समग्र स्वास्थ्य में अष्टांग योग महत्त्व’ का मुख्य लक्ष्य शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक स्वास्थ्य का आत्म-साक्षात्कार अथवा हमारे भीतर ईश्वरीय अनुभूति का साक्षात्कार करना है। इन लक्ष्यों को सभी प्राणियों के लिए प्यार और मदद, जीवन के लिए सम्मान, प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा, मन की शांतिपूर्ण स्थिति, शुद्ध शाकाहारी भोजन, शुद्ध विचार तथा सकारात्मक जीवन-शैली, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रथाओं के लिए सहजता से प्राप्त किया जाता है। योग के समस्त विधाओं का प्रयोग न केवल मानव-जीवन के समग्र विकास के लिए है; बल्कि यह समस्त जगत् के चर-अचर जीवों के लिए भी उपयोगी है। कुछ समय पहले यह विधा आम व्यक्तियों के लिए लगभग अबूझ बनी हुई थी; किंतु वर्तमान समय में योग की प्रासंगिकिता और महत्त्व की दिशा में काफी कुछ काम हुआ है। ‘पतंजलि’ और ‘यस व्यासा’ जैसे संस्थानों के प्रति लोगों के बढ़ते रुझान एवं सरकारी संरक्षण की वजह से आज योग अपने नए दृष्टिकोण और विजन के साथ हमारे सामने उपस्थित हुआ है।

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  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि.

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 01. https://thesimplehelp-com/om&sahana&vavatu&mantra&in&hindi/

02. पातंजलयोगयोगसूत्र, क्रियायोग 2/1
03. ब्रहृमणोपनिषद्, श्लोक, 23
04. ब्रहृमणोपनिषद्, श्लोक, 23
05. पातंजल योग सूत्र, 2/30
06. याज्ञवल्यकसंहिता, 2/17
07. पातंजल योगसूत्र, 2/35
08. श्रीमद्भगवद्गीता, 17/15
09. मनुस्मृति, 4/138
10. पातंजल योग सूत्र, 2/36
11. वही, 2/37
12. याज्ञवल्क्य संहिता, 3/23
13. पातंजल योग सूत्र, 2/38
14. मनुस्मृति, 2/13
15. पातंजल योग सूत्र, 2/32
16. वही, 2/40
17. वही, 2/42
18. वही,, 2/43  
19. वही, 2/1
20. वही, 1/23
21. वही, 2/46
22. वही, 2/49
23. वही, 2/55
24. वही, 3/1
25. वही, 3/2
26. वही, 3/3

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 सामाजिक न्याय की मूल अवधारणा यही है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक व आर्थिक रूप से समृद्ध किया जा सके इसी मंशा को ध्यान मे रखते हुए शासन द्वारा समय-समय पर अनेक कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण किया जाता है। प्रस्तुत शोध में खाद्य सुरक्षा अधिनियम होने से आये सामाजिक आर्थिक समृद्धता पर प्रकाश डाला गया है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2012 में लोगों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान की गई है। इस अधिनियम के अनेक ऐसे प्रावधान किए गए हैं जिसके द्वारा खाद्य सामग्री सही व अनुकूल परिस्थिति में प्राप्त हो सके एवं कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। छ.ग. खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2012 के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करके देश में अग्रणी है। आज इस प्रणाली को सभी राज्य एवं देश लागू करने का प्रयत्न कर रहे हैं। किसी भी समाज में महिलाओं का विकास उस समाज की प्रकृति का आधार स्तम्भ होता है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2012 के अर्न्तगत शासन की मंशा यही है कि इन्हें सारी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराकर अल्प आय, अल्परोजगार तथा बेकार व्यक्तियों के जीवन स्तर को सुधारा जाये। महिलाएं शिक्षित होकर आर्थिक रूप से आत्म निर्भर हों तभी पुरूषों के समकक्ष आने का अवसर प्राप्त होता है। छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2012 में कई ऐसे प्रावधान है जिससे महिला सशक्तिकरण हो सके अर्थात् इस अधिनियम का एक उद्देश्य महिला सशक्तिकरण भी है। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि राशन कार्ड घर के ज्येष्टमत महिला के नाम से बनेगा। छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2012 से लोगों में आर्थिक-सामाजिक समृद्धता आये इस हेतु शासन के द्वारा व्यापक स्तर पर प्रयास भी किया जा रहा है। इस अध्याय के इस अधिनियम में निहित प्रावधानों के द्वारा सामाजिक-आर्थिक समृद्धता पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

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 खाद्य सुरक्षा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, नागरिक आपूर्ति.

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  1. आहलूवालिया डी., (1993) पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन ऑफ इंडिया कवरेज टारगेंटिग लिडेजेस (फूड पॉलेसी 18 फरवरी 1993 पेज नं0 60।

2. अनन्दा डी (2012) स्टेट रिस्पॉस टू फूड स्क्यूरटी, अ स्टडी ऑफ पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन।
3. अरूण ए.के. (2012) बाजार की गिरफ्त मे पोशाहार और स्वस्थ्य (योजना 2012 पेज-19-22)।
4. बैनर्जी नंदु (2013) गरीबो के पेट पर वाटों की राजनीति (नईदुनिया समाचार पत्र 25 जुलाई 2013 पेज न. 8)।
5. भास्कर सुरेन्द्र (2013) आधार भूत सुविधाओं का आधार प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (योजना फरवरी 2013 पेज 38-39)।
6. भगवती व श्रीनिवास (1993) ओपी. सीआईटी, पेज 62।
7. चन्द्रभान (2012) अनाज का एक-एक दाना महत्वपूर्ण (कुरूक्षेत्र मार्च 2012 पेज 8-12)।
8. गवकरे राजेश बिमरो (2010) ज्योग्राफिक परसपेक्टिवस आन पापुलेशन एंड फूड सिस्टम सोलापुर डिस्ट्रीक।
9. हिमांशु एवं सेन अभिजीत (2013) नगदी बनाम सामग्री (योजना फरवरी 2013 पेज 16-18)।
 

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 शिक्षा में, एक पाठयक्रम को व्यापक रूप से शैक्षिक प्रक्रिया में होने वाले छात्र  अनुभवो की समग्रता के रूप में परिभाषित किया जाता है। शब्द अक्सर विशेष रूप से निर्देश के नियोजित अनुक्रम को संदर्भित करता है, या शिक्षक या स्कूल के निर्देशात्मक लक्ष्यों के संदर्भ में छात्र के अनुभवों को देखने के लिए। अध्यापन, आमतौर पर शिक्षण के दृष्टिकोण के रूप में समझा जाता है, सीखने के सिद्धांत और अभ्यास को संदर्भित करता है, और यह प्रक्रिया कैसे प्रभाव डालती है, और शिक्षार्थी के सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विकास से प्रभावित होती हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक भारतीय केंद्रित शिक्षा प्रणाली की कल्पना करती है जो सभी को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करके हमारे देश को एक समान और जीवंत ज्ञान वाले समाज में स्थायी रूप से बदलने में सीधे योगदान देती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मूल सिद्धांत तार्किक निर्णय लेने और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए रचनात्मकता और महत्वपूर्ण सोच को बढ़ावा देकर प्रत्येक छात्र की अद्वितीय क्षमताओं की पहचान करना ओर उन्हें बढ़ावा देना हैं। यह शिक्षण ओर सीखने, भाषा बाधाओं को दूर करने और शैक्षिक योजना ओर प्रबंधन में प्रौद्योगिकी के व्यापक उपयोग की सुविधा भी प्रदान करता है। यह स्वायत्तता, सुशासन और सशक्तिकरण के माध्यम से नवाचार और लोक से हटकर विचारों को प्रोत्साहित करता है। यह उत्कृष्ट शिक्षा औ परिनियोजन के लिए अपेक्षित के रूप में उत्कृष्ट अनुसंधान को बढ़ावा देता हैं। उच्च शिक्षा मानव के साथ-साथ सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने और भारत को विकसित करने में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जैसा कि इसके संविधान में कल्पना की गई है - एक लोकतांत्रिक न्यायपूर्ण, सामाजिक रूप से जागरूक, सुसंस्कृत ओर मानवीय राष्ट्र जो सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय को बनाए रखता है। उच्च शिक्षा का उद्देश्य अच्छे, विचारशील, पूर्ण विकसित और रचनात्मक व्यक्तियों का विकास करना होना चाहिए। 21वीं सदी के शिक्षण उपकरण प्रदान करके छात्रों को अकादमिक रूप से सशक्त बनाना।

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 उच्च शिक्षा, गुणवतापूर्ण विश्वविद्यालय और कॉलेज, संस्थागत पुनर्गठन, समग्र और बहु-विषयक शिक्षा, समानता और समावेश.

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  1. बेस्ट जेडब्ल्यू (2006), रिसर्च इन एजुकेशन (9वां संस्करण) नई दिल्लीः पें्रटिस हॉल इंडिया प्रा. लिमिटेड।

2. मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019।
3. एमएचआरडी.-भारत सरकार (2020) मानव संसाधन विकास मंत्रालय नई शिक्षा नीति 2020 बुकलेट।
4. एनसीईआरटी (2005) नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005।
5. राधा मोहन (2011) शिक्षा में अनुसंधान के तरीके, नई दिल्लीः नील कमल पब्लिकेशन्स प्रा. लिमिटेड, एजुकेशनल रिसर्जेस जर्नल, वॉल्यूम 2, अंक 3, जवनरी 2020 प्ैठछ 2581-9100 42।
6. एसके मंगल (2012) मनोविज्ञान और शिक्षा में सांख्यिकी, दूसरा संस्करण, नई दिल्लीः पीएचआई लर्निग प्राइवेट लिमिटेड।
7. एसजे सखारे (2011, 13 जनवरी) राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत शिक्षण पात्र में रचनावादी दृष्टिकोण का प्रभाव मुंबई।

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 The problem of Kashmir has never been an easy one to mitigate, even after all these years. This paper will focus on the roles of the creative Kashmiri English writers with whom the readers have seen the transformation of Kashmir, from a turbulent period to the restoration of peace. Kashmir was basically a princely state or province which was never actually bound by the British Indian Government like the other fellow states of India. It is known by everyone that India’s freedom was gained after so many sacrifices and protests of the Indian people (Mukherjee, 2016). After the great partition of India in the year of 1947, Kashmir remained a free princely state. The British Government had declared that Kashmir had the full right to take a free decision on whether they wanted to join Pakistan or India. Pakistan had always laid an eye on Kashmir because of its serene beauty and the peaceful atmosphere and also to gain support from them in order to humiliate India.

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 Peace, Conflict, Mitigate, Province, Kashmir.

Read Reference

  1. Dabla, B.A., 2012. Sociological Dimensions and Implications of the Kashmir Problem. In The Parchment of Kashmir (pp. 179-210). Palgrave Macmillan, New York.

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